माँ बम्लेश्वरी देवी के मंदिर के लिये विख्यात डोंगरगढ़ एक ऐतिहासिक नगरी है। यहां माँ बम्लेश्वरी के दो मंदिर है। पहला एक हजार फीट पर स्थित है जो कि बड़ी बम्लेश्वरी के नाम से विख्यात है। मां बम्लेश्वरी के मंदिर मे प्रतिवर्ष नवरात्र के समय दो बार विराट मेला आयोजित किया जाता है जिसमें लाखों की संख्या में दर्शनार्थी भाग लेते है। चारों ओर हरी-भरी पहाडियों, छोटे-बड़े तालाबों एवं पश्चिम में पनियाजोब जलाशय, उत्तर में ढारा जलाशय, तथा दक्षिण में मडि़यान जलाशय से घिरा प्राकृतिक सुंदरता से परिपूर्ण स्थान है डोंगरगढ़।
कामाख्या नगरी व डुंगराज्य नगर नामक प्राचीन नामों से विख्यात डोंगरगढ़ में उपलब्ध खंडहरो एवं स्तंभों की रचना शैली के आधार पर शोधकताअरं ने इसे कलचुरी काल का एवं 12 वीं.-13वीं. सदी के लगभग का पाया है। किन्तु अन्य सामग्री जैसे मूर्तियों के गहने, अनेक वस्त्रों, आभुषणों, मोटे होंठ एवं मस्तक के लंबे बालों की सूक्ष्म मिमांसा करने पर इस क्षेत्र की मूर्तिकला पर गोड़ कला का प्रभाव परिलक्षित हुआ है। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि १६ वीं शताब्दी तक डुंगराज्य नगर गोड़ राजाओं के आधिपत्य में रहा। गोड़ राजा पर्याप्त सामर्थ्यवान थे, जिससे राज्य में शांति व्यवस्था स्थापित थी। यहां की प्रजा भी सम्पन्न थी, जिसके कारण मूर्ति शिल्प तथा गृह निर्माण कला का उपयुक्त वातावरण था। लोक मतानुसार 2200 वर्ष पूर्व डोंगरगढ़ के प्राचीन नाम कामाख्या नगरी में राजा वीरसेन का शासन था, जो कि नि:संतान थे। पुत्र रत्न की कामना हेतु उसने महिषमती पुरी में स्थित शिवजी और भगवती दुर्गा की उपासना की, जिसके फलस्वरूप रानी को एक वर्ष पश्चात पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। ज्योतिषियों ने नामकरण में पुत्र का नाम मदन सेन रखा। भगवान शिव एवं माँ दुर्गा की कृपा से राजा वीरसेन को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। इसी भक्ति भाव से प्रेरित होकर कामाख्या नगरी मे माँ बम्लेश्वरी का मंदिर बनवाया गया।
माँ बम्लेश्वरी को जगदम्बा जिसमें भगवान शिव अर्थात महेश्वर की शक्ति विद्यमान है के रूप में जाना जाने लगा। राजा मदनसेन एक प्रजा सेवक शासक थे। उनके पुत्र हुए राजा कामसेन जिनके नाम पर कामाख्या नगरी का नाम कामावती पुरी रखा गया। कामकन्दला और माधवनल की प्रेमकथा भी डोंगरगढ़ की प्रसिध्दि का महत्वपूर्ण अंग है। कामकन्दला, राजा कामसेन के राज दरबार में नर्तकी थी। वही माधवनल निपुण संगीतज्ञ हुआ करता था।
एक बार राजा के दरबार में कामकन्दला के नृत्य का आयोजन हुआ, परन्तु ताल एवं सुर बिगड़ने से माधवनल ने कामकन्दला के पैर के एक पायल में नग न होना व मृदंग बजाने वाले का अंगूठा नकली अर्थात मोम का होना जैसी त्रुटि निकाली। इससे राजा कामसेन अत्यन्त प्रभावित हुए और उसने अपनी मोतियों माला उन्हें सौपकर माधवनल के सम्मान में नृत्य करने को कहा। कामकन्दला के नृत्य से प्रभावित होकर माधवनल ने राजा कामसेन की दी हुई मोतियों की माला कामकन्दला को भेंट कर दी, इससे राजा क्रोधित हो गया। उन्होंने माधवनल को राज्य से निकाल दिया, लेकिन माधवनल राज्य से बाहर न जाकर डोंगरगढ़ की पहाडि़यों की गुफा में छिप गया। प्रसंगवश कामकन्दला व माधवनल के बीच प्रेम अंकुरित हो चुका था। कामकन्दला अपनी सहेली माधवी के साथ छिपकर माधवनल से मिलने जाया करती थी। दूसरी तरफ राजा कामसेन का पुत्र मदनादित्य पिता के स्वभाव के विपरीत नास्तिक व अय्याश प्रकृति का था। वह कामकन्दला को मन ही मन चाहता था और उसे पाना चाहता था। मदनादित्य के डर से कामकन्दला उससे प्रेम का नाटक करने लगी। एक दिन माधवनल रात्रि में कामकन्दला से मिलने उसके घर पर था कि उसी वक्त मदनादित्य अपने सिपाहियों के साथ कामकन्दला से मिलने चला गया। यह देख माधवनल पीछे के रास्ते से गुफा की ओर निकल गया। घर के अंदर आवाज आने की बात पूछने पर कामकन्दला ने दीवारों से अकेले में बात करने की बात कही। इससे मदनादित्य संतुष्ट नहीं हुआ और अपने सिपाहियों से घर पर नजर रखने को कहकर महल की ओर चला गया। एक रात्रि पहाडि़यों से वीणा की आवाज सुन व कामकन्दला को पहाड़ी की तरफ जाते देख मदनादित्य रास्ते में बैठकर उसकी प्रतिक्षा करने लगा परन्तु कामकन्दला दूसरे रास्ते से अपने घर लौट गई। मदनादित्य ने शक होने पर कामकन्दला को उसके घर पर नजरबंद कर दिया। इस पर कामकन्दला और माधवनल माधवी के माध्यम से पत्र व्यवहार करने लगे, किन्तु मदनादित्य ने माधवी को एक रोज पत्र ले जाते पकड़ लिया। डर व धन के प्रलोभन से माधवी ने सारा सच उगल दिया। मदनादित्य ने कामकन्दला को राजद्रोह के आरोप में बंदी बनाया उधर माधवनल को पकड़ने सिपाहियों को भेजा। सिपाहियों को आते देख माधवनल पहाड़ी से निकल भागा और उज्जैन जा पहुंचा। उस समय उज्जैन में राजा विक्रमादित्य का शासन था, जो बहुत ही प्रतापी और दयावान राजा थे। माधवनल की करूण कथा सुन उन्होंने माधवनल की सहायता करने की सोच अपनी सेना कामाख्या नगरी पर आक्रमण कर दिया। कई दिनों घनघोर युध्द के बाद विक्रमादित्य विजयी हुए एवं मदनादित्य, माधवनल के हाथों मारा गया। घनघोर युध्द से वैभवशाली कामाख्या नगरी पूर्णत: ध्वस्त हो गई। चारो ओर शेष डोंगर ही बचे रहे तथा इस प्रकार डुंगराज्य नगर पृष्ठभूमि तैयार हुई। युध्द के पश्चात विक्रमादित्य द्वारा कामकन्दला एवं माधवनल की प्रेम परीक्षा लेने हेतु जब यह मिथ्या सूचना फैलाई गई कि युध्द में माधवनल वीरगति को प्राप्त हुआ, तो कामकन्दला ने ताल में कूदकर प्राणोत्सर्ग कर दिया। वह तालाब आज भी कामकन्दला के नाम से विख्यात है। उधर कामकन्दला के आत्मोत्सर्ग से माधवनल ने भी अपने प्राण त्याग दिये। अपना प्रयोजन सिध्द होते ना देख राजा विक्रमादित्य ने माँ बम्लेश्वरी देवी बगुलामुखी की आराधना की और अतंत: प्राणोत्सर्ग करने को तत्पर हो गये, तब देवी ने प्रकट होकर अपने भक्त को आत्मघात से रोका। तत्पश्चात विक्रमादित्य ने माधवनल कामकन्दला के जीवन के साथ यह वरदान भी मांगा कि माँ बगुलामुखी अपने जागृत रूप में पहाड़ी में प्रतिष्ठित हो। तब से माँ बगुलामुखी अपभ्रंश बमलाई देवी साक्षात महाकाली रूप मे डोंगरगढ़ में प्रतिष्ठित है। सन १९६४ मे खैरागढ़ रियासत के भूतपूर्व नरेश श्री राजा बहादुर, वीरेन्द्र बहादुर सिंह द्वारा मंदिर के संचालन का भार माँ बम्लेश्वरी ट्रस्ट कमेटी को सौंपा गया था। डोंगरगढ़ के पहाड़ में स्थित माँ बम्लेश्वरी के मंदिर को छत्तीसगढ़ का समस्त जन समुदाय तीर्थ मानता है। यहां पहाड़ी पर स्थित मंदिर पर जाने के लिये सीढीयों के अलावा रोपवे की सुविधा भी है। यहां यात्रियों की सुविधा हेतु पहाड़ों के ऊपर पेयजल की व्यवस्था, विद्युत-प्रकाश, विश्रामालयों के अलावा भोजनालय व धार्मिक सामग्री खरीदने की सुविधा है। डोंगरगढ़ राजधानी रायपुर से 100 किमी की दूरी पर स्थित है। तथा मुंबई-हावड़ा रेल्वे के अन्तर्गत भी आता है। यह छत्तीसगढ़ का अमूल्य धरोहर है।
संपादक की डेस्क से
गोविन्द साहू (साव)
लोक कला दर्पण
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