शीर्षक:- यथार्थवादी कला के अग्रदूत मुंशी प्रेमचंद
हिंदी साहित्य के समग्र विकास को हम भारतेंदु युग के पश्चात द्विवेदी युग में साफ-साफ देख सकते हैं। रीतिकाल की साहित्यिक परंपराएं शनै: -शनै: धुँधली हो रही थीं और आधुनिक काल की प्रवृतियां अंकुरित होने को तत्पर थीं। रीतिकाल में गद्य साहित्य की रचना तो हुई परंतु प्रतिपादित विषयों की दृष्टि से इस काल का कथा- साहित्य धर्म,दर्शन ,अध्यात्म, इतिहास ,भूगोल, चिकित्सा, ज्योतिष, व्याकरण आदि रहा। भाषा में भी ब्रज,पूर्वी हिंदी,राजस्थानी तथा पंजाबी का प्रभाव रहा। ललित गद्य की अपेक्षा अललित गद्य अधिक लिखे गए। कह सकते हैं कि रीतिकाल में पद्य की ही प्रमुखता रही। गद्य लेखन की आवश्यकता को बहुत कम साहित्यकारों ने समझा।
सन अट्ठारह सौ पचास (भारतेंदु हरिश्चंद्र का जन्म 19वीं सदी के ठीक मध्य में हुआ) को आधुनिक हिंदी साहित्य के आरंभ का वर्ष मान लिया गया। अट्ठारह सौ सत्तावन से उन्नीस सौ तक को पुनर्जागरण काल या भारतेंदु काल कहा जाता है। इसके बाद उन्नीस सौ से उन्नीस सौ अट्ठारह तक का समय जागरण- सुधार- काल (द्विवेदी काल) है। हिंदी कथा साहित्य का असल विकास इसी काल से परिलक्षित होता है। 31 जुलाई सन 1880 में उत्तर प्रदेश के लमही गांव में जन्म लेने वाले धनपत राय (मुंशी प्रेमचंद) ने गद्य साहित्याकाश को अपनी लेखनी के जादू से समृद्ध करने का कार्य किया। समाज और राष्ट्र की चिंता करने वाले प्रेमचंद अपनी लोक मंगलकारी दृष्टि से हिंदी गद्य को साहित्य में प्रतिष्ठित करते चले गए। यथार्थ को समझते हुए उन्होंने तब के समाज को अपना विषय बनाया। उनके पात्र जहां ग्राम्य अंचल के पूरे परिवेश को साकार करते हैं, वहीं आधुनिकता को एक सीमा तक अपनी स्वीकृति भी देते हैं।
प्रेमचंद के समय में कुछ गद्यकार सामाजिक जीवन की यथार्थ समस्याओं से मुंह फेर कर कुतूहल, रहस्य और रोमांच की दुनिया में खोए हुए थे परंतु प्रेमचंद जी ने सामाजिक यथार्थ से स्वयं को जोड़ते हुए अपनी कलम चलाई। यही कारण है कि इनकी रचनाओं में हमें इतिहास सम्मत सामाजिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक स्थितियों का व्यापक चित्रण देखने को मिलता है। 'गोदान' उपन्यास इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। इसके अलावा यदि प्रेमचंद की यथार्थ और आदर्श दृष्टि हमें देखना हो तो 'सेवासदन', 'प्रेमाश्रम', 'रंगभूमि','निर्मला', 'ग़बन','कर्मभूमि' एवं 'प्रेमा' उपन्यास को पढ़ा जा सकता है। उनके सभी पात्र अपने-अपने यथार्थ का विस्मरण नहीं करते बल्कि उसी यथार्थ के बूते अपने आपको गढ़ते हैं, संवारते हैं। जीवन की वास्तविक समस्याओं को केंद्र में रखकर प्रेमचंद कथा- साहित्य की दुनिया में आए। 'सेवासदन' उपन्यास में प्रेमचंद पूरी तरह आदर्शोन्मुख यथार्थवाद की स्थापना करते हैं। इसे हम बड़ा सच कह सकते हैं कि कई उपन्यासकार आदर्श की डफली तो बजाते हैं परंतु उनका यथार्थ कुछ और होता है। कुछ कथाकार यथार्थ की नींव पर खड़े दिखते हैं परंतु उनका आदर्श खोखला होता है। एक प्रेमचंद ही हैं जिनमें जीवन का यथार्थ और आदर्श दोनों हैं ।उनका रचना संसार वर्तमान के दुख-दर्द, हार-जीत, अंतर्विरोध ,जाति- प्रथा आदि की कथा है। कथा साहित्य के दो पाट अवश्य होंगे किंतु प्रेमचंद की रचना धर्मिता इन दोनों पाटों से कहीं ऊपर है, आगे है। साहित्य का कोई भी वाद हो कथा -साहित्य के लेखकों को प्रेमचंद को अनिवार्य रूप से पढ़ना ही होगा। डॉ. नगेंद्र ने लिखा है- " समाज के व्यापक हितों को दृष्टि में रखकर लिखे जाने वाले उपन्यासों ,कहानियों का उद्भव स्त्रोत प्रेमचंद से स्वीकार किया जाना चाहिए।"
डॉ.लोकेश शर्मा, गायत्री नगर, राजनांदगांव (छत्तीसगढ़) मोबाइल- 96915 62738
0 टिप्पणियाँ
please do not enter any spam link in the comment box.