मानव जीवन मे सबसे विशिष्ट और तेज गति से खत्म होती चीज है वक्त। कब वर्तमान अतीत के झरोखे में चला जाता है
त्यौहार मनाने के पीछे एकता, सहयोग, आदर्श, बंधुत्व की भावना अंर्तनिहित होती है। हर त्यौहार के पीछे कोई न कोई कहानी विशेष रूप से जुड़ी रहती है जिसमें कभी देवी की शक्ति महिमा की स्तुति, कभी मर्यादा की दृढ़ता पर एकता का विश्वास, कर्तव्य की पराकाष्ठा, असत्य पर सत्य की विजय, बुराई पर भलाई की जीत, अहं पर सरल नि:श्छल हृदय के टक्कर की कहानी दुहरायी जाती है। कुछ सामाजिक रीति रिवाजों और परम्परायें भी सहयोग की भावना पर ही आधारित रहती है। प्रत्येक त्यौहार के पीछे कोई न कोई मानवीय कल्याण आदर्श व शिक्षा का भाव विशेष रूप से अंर्तनिहित होता है। उसमें मनोरंजन के विशुद्ध उल्लास का आनन्द भी समाया रहता है। त्यौहार के समय स्फूर्ति, जागरूकता, साफ-सफाई, सजावट के अलावा विभिन्न सुस्वादिष्ट भेज्य पदार्थ के साथ मिष्ठानों के बनाने की भी अपनी एक परम्परा आज भी भारतीयों में प्रत्यक्ष दिखाई देती है। सावन के आते ही वर्षा की रिमझिम फुहारों से वसुंधरा पुलकित होने लगती है। इधर त्यौहारों का सिलसिल शुरू हो जाता है। वर्षा की बूँदाबाँदी में सभी भगवान जगन्नाथ जी की रथयात्रा उत्सव में शामिल होकर आनन्दित होते हैं।
त्यौहारों की श्रृंखला में रथयात्रा का एक विशेष महत्व है। वर्ष के आरम्भ में आदि शक्ति की आराधना कर नवरात्रि का उत्सव मनाया जाता है। ग्रीष्म की प्रचंड ताप में झुलसती धरती में आषाढ़ की रिमझिम फुहार किसानों के हृदय में आशा की एक नई किरण उत्साह और उमंग का संचार करती है। रथयात्रा एक धार्मिक उत्सव है जो प्रत्येक गाँव, शहर और नगर में सोल्लास के साथ मनाया जाता है। जगन्नाथपुरी का तो यह मुख्य उत्सव है। कहा जाता है कि ज्येष्ठ की पूर्णिमा को जगन्नाथजी, बलभद्र तथा सुभद्रा जी को स्नानवेदी पर अक्षयवट के पवित्रा कुश से दोपहर दिन में स्नान कराया जाता है। फिर वस्त्रा एवं आभूषण से सुसज्जित कर पंद्रह दिनों तक अन्दर, मंदिर में रखते हैं। आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को भी जगन्नाथ जी, बलभद्र और सुभद्रा जी को बड़े समारोह के साथ रथ में बैठाकर नगर भ्रमण कराते हुए जनकपुर ले जाते हैं। बड़े, बूढ़े, बच्चे सभी पुण्य लाभ के भाव से श्रद्धा और भक्ति से रथ को खींचते हैं। उत्साह और उल्लास के साथ भगवान जगन्नाथ का दर्शन कर आनन्दित होते हैं। गजामूँग का प्रसाद दिया जाता है। जगन्नाथ स्वामी के प्रसाद का विशेष महत्व है। इसका अनादर न करते हुए भक्ति भाव से ग्रहण किया जाता है। जनकपुर में सात दिन रह कर भगवान जगन्नाथ फिर वापस अपने सिंहासन में विराजते हैं। कहा जाता है कि भगवान की लीला इस संसार में लोगों को धर्म के प्रति आस्था एवं अपने कर्तव्य बोध की याद दिलाता है। बंधुत्व भाव से मिल-जुल कर सिर्फ आनंदित होना चाहते हैं। प्रसन्न होना चाहते हैं। गजामूंग एक माध्यम है उसके सहारे जिनके किसी भी प्रकार के खून के रिश्ते में कमी है तो उसकी पूर्ति करने के लिए बड़ी बेसब्री से रथयात्रा उत्सव का लोग रास्ता देखते रहते हैं। जब रथयात्रा उत्सव का यह विशेष दिन आ जाता है तब हर व्यक्ति जिसे अपनी भाई की चाहत हो या किसी बहन की चाहत हो तो एक दूसरे को गजामूँग देकर उस रिश्ता को एक नाम दे देते हैं। फिर भाई भाई, बहन बहन उस रिश्ते की पवित्राता को जीवन पर्यन्त तक प्राणपण से निभाते चले आते हैं। यह हमारी भारतीय संस्कृति में त्यौहारों के माध्यम से एक विशिष्ट अवदान है जो अन्य किसी देश में नहीं पाया जाता है।
गजामूँग से बने भाई बहन का परिवार सगे रिश्तों से भी बढ़कर स्नेहिल व आदरणीय माने जाते हैं। यह हमारी भारतीय संस्कृति की अमूल्य धरोहर है।
हरेली के त्यौहार में ह्लगेड़ीह्व की हलचल गाँव में ही दिखाई देती है। गेड़ी चलाना भी एक कला है। गाँवों के घरों में बांस की कमी नहीं रहती है। बच्चों को खेलने के लिए उनके खुशी के लिए मिनटों में बढ़ई दादा, बढ़ई चाचा गेड़ी बनाकर दे देते हैं। गेड़ी चलाते हुए बच्चों को मानसिक संतुलन बनाए रखने का प्रयास करना पड़ता है। तभी गेड़ी में सवार गिरता नहीं है। यही संतुलन आगे चलकर जीवन में संयम और बड़ों की मयार्दा का आदर करना सिखाता है। त्यौहारों का सिलसिला बढ़ते बढ़ते पूर्णिमा के दिन रक्षाबंधन का त्यौहार मनाया जाता है। यह भाई बहन का स्नेह का पवित्र बंधन है। दूसरे दिन भोजली का त्यौहार मनाया जाता है। यह भी लोक संस्कृति का विशिष्ट पर्व है। मुझे याद आ रहा है सन 1954-55 की बात है जब खैरागढ़ राज में भोजली का त्यौहार बड़ी धूमधाम से मनाया जाता था। खैरागढ़ की सबसे बड़ी विशेषता है कि वहाँ गाँवों की सरलता एवं शहरों की समस्त सुविधाएं सहजता से देखने को मिलती है।
रक्षाबंधन के एक सप्ताह पहले ही नवमी के दिन प्रत्येक घर में अंधेरे कमरे में भोजली को अधिष्ठात्री देवी की प्रतीक चिन्ह से प्रतिदिन सुबह पत्ते के दोने में मिट्टी और गेहूँ के दाने डालकर भोजली देवी की पूजा किया जाता है। प्रतिदिन उसमें पानी डालना एक पूजा की भाँती अनिवार्य कार्य होता है। राखी के दूसरे दिन भोजली की पूजा की जाती है, फिर विसर्जन करने के लिए सभी कुँवारी कन्याएं भोजली को घर से बाहर निकालती हैं। जिसकी भोजली पीला रंग की दिखाई देती है उसे देवी की कृपा मान कर लोग प्रसन्न होते हैं। खैरागढ़ के राजमहल में यह एक परम्परा है कि बस्ती के सभी घरों के लोग भोजली को लेकर एक जुलुस के रूप में राजमहल में पहुँचते । वहाँ सर्वश्रेष्ठ भोजली को पुरस्कृत भी किया जाता था। फिर सभी अपने भोजली को लिए नदी की ओर जाते और वहाँ भोजली की पूजा कर नारियल फोड़ते और मिट्टी तथा दोने को नदी में बहा देते थे। भोजली को लेकर घर आ जाते थें। गाँवों में आज भी यह प्रथा है अपनी सखी सहेलियाँ को दो चार भोजली देकर भोजली बदने का प्रयास अभी भी कायम है। सीता राम भोजली कहकर एक दूसरे की अतरंग सहेली बन जाते हैं। यह स्नेह का बंधन अटूट होता है। फिर आदर की भावना से प्रेरित हो अपनी सहेली का नाम नहीं लेते हैं। उससे भोजली कहकर ही बातें करते हैं। इस प्रकार भोजली के त्यौहार के माध्यम से गाँव में आपस में मैत्री भाव का एक अति सुन्दर रूप देखने को मिलता है। इस प्रकार हमारे छत्तीसगढ़ राज्य की यह एक प्राचीन किवदंती है कि भोजली देवी की पूजा करने से अकाल व सूखाग्रस्त इलाका न बनें इसलिए नौ दिन तक सूर्य की पूजा करते हुए गेहूँ के दाने अंधेरे में उगाये जाते है। उसे ही भोजली कहा जाता है। अपने पीले रंग की सौन्दर्य से सब का मन मोह लेती है। पीला रंग सदैव से ही शुभ कार्य के लिए अति उत्तम माना जाता है। भोजली की सुन्दरता से सभी गाँव के बड़े-बूढ़े इसे सूर्य की कृपा मान यह सोचने लगते हैं कि निश्चित ही धन धान्य की वृद्धि होगी। इस प्रकार सभी भोजली को देख आनन्दित होते हैं। इसी प्रकार छत्तीसगढ़ में वर्षा के मेघ को देखकर, मघा परमेश्वरी के नाम से पूजा किया जाता है। ऐसी कितनी ही कथाएँ और कितने ही त्यौहारों का सिलसिला वर्ष भर चलते रहता है।
बसंत पंचमी मे सरस्वती की आराधना की जाती है। प्रकृति अपनी पूर्ण यौवन में रंग बिरंगे फूलों की सुन्दरता से समस्त जनमानस के मन को मोह लेती है। फलों के राजा आम में मौर वसंतपंचमी के समय अपनी पूर्ण मादकता के साथ खिलने लगता है। होली रंगों का निराला त्यौहार है सभी अपने मन की कटुता बैर के बदरंग को भूलकर रंग बिरंगे प्रेम के रंग में ही डूब जाना चाहते हैं। तभी तो यह कहा जाता है कि ब्रज के कान्हा गाँव की गोरी रंग बरसाती देखी होली। कोई भी त्यौहार (हम) रोजमर्रा की जिन्दगी से हटकर पूजा अर्चना और बंधुत्व भाव से पे्ररित होकर मनाते आ रहे हैं। आने जाने वाले मेहमानों को भी अपनी कलात्मक रूचि का परिचय देने का भी यह सुनहरा अवसर होता है। इसी से गृहिणी अपने आँगन को विशेष रूप से साफ कर रंगोली बनाकर अपनी कला सौष्ठव की कारीगरी से मेहमानों को मुग्ध करने का प्रयास करती है। किसी की रंगोली सरल सीधी बेल पर ही आधारित रहती है। किसी की रंगोली बड़ी पर रंगों के समायोजन से उसमें चार चाँद लग जाते हैं। इसमें गृहिणी के मन के भावों का भी सुन्दर समन्वय देखने को मिलता है। घर के अन्दर की भी साज सजावट गृहिणी के स्वभाव के अनुरूप ही दिखाई देती है। उसकी सुघड़ता, संपन्नता का परिचय हमें उसके ड्राईंग रूम में पहुँचते ही अनायास मिल जाता है। कहीं गुलदस्ते में रजनीगंधा के ही फूल लगे रहते हैं तो किसी के गुलदस्ते में गुलाब, मोंगरे, हीना एक साथ अपनी मोहक सुरभि से कमरे की सुन्दरता का द्विगणित करते हैं। इस प्रकार हँसी खुशी और उल्लासमय वातावरण में त्यौहार मनाने की परम्परा हर भारतीय घरों में पाई जाती है। त्यौहार की पूर्व आगमन से ही तैयारियाँ शुरू हो जाती है और उनकी त्यौहारों की उमंग भरी भावनाओं का जल्द ही पुनरागमन हो, इसी आशा को प्रगट करते हुए परिवार के समस्त सदस्यों द्वारा त्यौहारों का समापन होता है। ये त्यौहार हमारे जीवन में खुशी का संचार करने का काम करते हैं। यही कारण है कि छत्तीसगढ़ के लोगों के स्वभाव में आज भी वह भोलापन एवं निष्कपट भाव का सागर लहराते रहता है। बसुधैव कुटुम्बकम, की भावना यहाँ के जनमानस का तो कंठहार ही है। इसी उदार गुणों के कारण ही आज छत्तीसगढ़ राज्य में प्राय: सभी राज्य के व्यक्ति रोजी रोटी के लिए आते हैं और यहीं के होकर रह जाते हैं। यह हमारे छत्तीसगढ़ राज्य की सबसे बड़ी विशेषता है।
लेखिका
डॉ. नलिनी श्रीवास्तव
0 टिप्पणियाँ
please do not enter any spam link in the comment box.