छत्तीसगढ़ में लोगों का जीवन कृषि पर ही आधारित होता है। प्रकृति पूजा के साथ पेड़-पौधों को देवी-देवता मानते इनकी पूजा करना यहां के लोगों का मानों धर्म सा बन गया है। इसी प्रकति के प्रति लगाव के कारण ही यहां वर्ष भर तीज-त्यौहार पूरे उत्साह के साथ मनाते देखे जाते हंै। वर्षा ऋतु में प्रकृति हरियाली की चादर ओढ़े सी प्रतीत होती है, सारा वातावरण हरा ही हरा नजर आने लगता है। लोग खुशियों से झूम उठते हैं ऐसे वातावरण को देखकर। इसी खुशहाली को व्यक्त करने के लिए सावन मास में हरियाली त्योहार आता है। कृषि कार्य मंे संलग्न किसान मानों इस त्योहार के माध्यम से अपनी थकान मिटाने के लिए आतुर रहता हो। प्रकृति के इस हरे रंग को देखकर आत्मिक शांति के साथ सुकून का अनुभव होने लगता है, शरीर ताजगी से भरा होता है। खेत में छोटे छोटे हरे-भरे धान के पौधे को लहलहाते देख किसान अनायास ही अपने मन के उद्गार को व्यक्त करने में किसी प्रकार की चूक नहीं करते।
हरेली का त्योहार सावन माह की अमावस्या को मनाई जाती है। हरेली के दिन किसान अपने कृषि में उपयोग आने वाले उपकरणों में रापा, कुदारी, बिंधना, नांगर और जुड़ा जैसे वस्तुओं के साथ खेती से जुड़ी अन्य उपकरणों की साफ-सफाई करने के बाद उनकी पूजा करते हंै तथा बरा, भजिया, चीला और सोहारी अर्पण किया जाता है। राऊत लोग गाँव में घर-घर जाकर घर के बाहर नीम की डंगाल रखते जाते हैं इसके पीछे अनेक मान्यताएं हंै। बैंलों को विशेष रूप से सजाने की परंपरा भी कहीं कही देखी जाती है। अनेक स्थानों पर बैल दौड़ का भी आयोजन किया जाता है। पूरे गांव के लोगों में उत्साह का वातावरण देखा जाता है।
वर्तमान में समय के बदलाव का असर हरेली त्योहार पर भी पड़ने लगा है। लोग इस दिन त्योहार कम मनाते हैं मदिरा पीकर गांव के माहौल को खराब करते लोगों को देखा जा सकता है। त्योहार के मूल रूप को लोग भूलते जा रहे हैं। इसी तरह अनेक परंपराओं को चिर स्थाई बनाए रखने के लिए लोककला दर्पण ने बीड़ा उठाया है। आशा है आप सभी की सहभागिता से हम अपने लक्ष्य में अवश्य ही सफल हो पाएंगे।
संपादक
गोविन्द साहू (साव)
लोक कला दर्पण
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1 टिप्पणियाँ
सुंदर और सामयिक आलेख
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