मुक्तिबोध एक तरह से मुक्ति का अहसास कराने वाले कवि हैं। इनकी कविताएँ जटिलता से
होकर गुजरती हैं। और जब पूरी तरह से गुजरना हो जाता है तब मुक्तिबोध आम पाठकों की
ऊँगली पकड़कर दूर उजाले की ओर ले जाते हैं। जटिलता की यह यात्रा आसानी से साध्य
नहीं होती है। दम फूलने लगता है, शरीर के जोड़ों में असहनीय दर्द पैदा
होता है। कभी – कभी यह
भी
लगता है कि शायद यह यात्रा हम पूरी नहीं कर पाएँगे। और यदि हमने यहीं पर हथियार
डाल दिए तो यह मानकर चलिए कि जटिलता का यह अंतर्जाल हमें चारों ओर से घेर लेगा और
उस उजाले तक हम पहुँच ही नहीं पाएँगे जहाँ मुक्तिबोध हमें ले जाना चाहते हैं।
मुक्ति का बोध कराने मुक्तिबोध तत्पर खड़े हैं लेकिन शर्त यही है कि शुरूआत हमें
करनी है। यह स्वीकार चलें कि गजानन माधव मुक्तिबोध हमें नहीं बुलाएँगे या किसी तरह
का आमंत्रण उनकी ओर से हमें (पाठक वर्ग) मिले यह असंभव सा ही है।
भूरी – भूरी खाक धूल, कविता संग्रह की
एक कविता-सहर्ष स्वीकारा है, शीर्षक से है। इस कविता में मुक्तिबोध
जो अन्तर्जाल बुनते हैं उसी में वह फंसते हुए नजर आते हैं। अन्त तक यह स्पष्ट ही
नहीं हो पाता कि पूरी कविता मे उनका अपना लक्ष्यार्थ क्या है? (वैसे
यह कविता सी.बी.एस.ई. की बारहवीं कक्षा के विद्यार्थी पढ़ते हैं) हाँ, तो
इस कविता में मुक्तिबोध छायावाद की जड़ तक पहुँच जाते हैं। वैसे भी
छायावादी कवियों की रचनाएँ अपने आप में दुर्बोध होती हैं। रचनाएँ कहाँ किस ओर
संकेत कर रही हैं यह जान पाना कठिन होता है। उसमें भी मुक्तिबोध की रचनाएँ पाठक वर्ग को
शुरू से लेकर अन्त तक उलझनों में भटकाती रहती हैं। ऐसा नहीं है कि आप
उलझनों से बाहर नहीं निकल सकते। इसकी भी पूरी-पूरी गुंजाइश मुक्तिबोध साहब
रखते हैं। पाठक वर्ग को करना केवल इतना ही रहता है कि उनकी कविताओं के बिम्बों एवं
प्रतीकों को पहचानते हुए उसमें पड़े आवरण को हटाना। आवरण के हटते ही मुक्तिबोध के
समस्त बिम्ब और प्रतीक अपने आप में प्रकाशित हो उठते हैं और पाठक वर्ग को गूढ़ अर्थ
को समझाने में पूरी-पूरी सहायता भी करते हैं। सहर्ष स्वीकार है, की
इन पंक्तियों पर जरा गौर लें -
सचमुच मुझे दंड दो कि भूलूँ
मैं भूलूँ
मैं
तुम्हें
भूल
जाने की
दक्षिण
ध्रुवी अंधकार-अमावस्या
शरीर
पर, चेहरे पर, अंतर में पा लूँ मैं
झेलूँ
मैं, उसी में नहा लूँ मैं
इसलिए
कि तुमसे ही परिवेष्टित आच्छादित
रहने
का रमणीय यह उजेला अब
सहा
नहीं जाता है।
सहा
नहीं जाता है।
कविता के उपर्युक्त अंश को पढ़कर ही एक अजीब सी
बेचैनी पैदा होती है। कवि अपने अज्ञात प्रिय को भूल जाने की प्रार्थना करता है। वह कठोर
दण्ड के लिए भी तैयार है। कवि दक्षिणी ध्रुव के अनन्त अँधेरे
में स्वयं को विलीन करना चाहते हैं। प्रिय के स्नेह का उजाला भी
मुक्तिबोध के लिए असहनीय हो जाता है। अब यदि मुक्तिबोध को समझना हो तो कविता के दो
बिंब ही काफी हो जाते हैं। जिसमें पहला बिम्ब दक्षिण ध्रुवी अंधकार-अमावस्या है और
दूसरा बिम्ब या प्रतीक रहने का रमणीय यह उजाला अब पाठकों को अर्थग्रहण में सहायता
पहुँचाता है। सही मायनों में मुक्तिबोध को समझने के लिए हमें पहले खुद को तैयार
करना पड़ेगा या तैयार करना पड़ता है। हिन्दी साहित्य में छायावाद और विशेषकर नई
कविता को स्थापित करने में मुक्तिबोध सबसे बड़े कवि के रूप में हमारे सामने आते
हैं। उन्हें हम अँधेरे में उजाले का रंजक कवि निर्विवाद रूप से कह सकते हैं। बहुत
अधिक मुखर होकर वे यह भी कहते हैं कि उन्हें बहलाती, सहलाती,
आत्मीयता
बर्दाश्त नहीं होती है-
मुक्ति का बोध
मुक्ति का बोध कराने वाले
मुक्तिबोध तुम कहाँ हो ?
आज भी घने अँधेरे का
साम्राज्य है, सभ्यता का
संकट है।
समाज पलटेगा, स्थितियाँ
बदलेंगी
तुम्हारा यह विश्वास, आज भी आस
है
मुक्तिबोध तुम कहाँ हो ?
तुमने ही कहीं लिखा है -
यहाँ हम आ गए हैं लेकिन
महल के उस तरफ,
दीवार के उस पार,
हमारा साथी
लश्कर मुहैया कर रहा होगा,
और हमारी हार का बदला लेगा
और हम जीतेंगे
संघर्ष और तुम्हारी आशा का
यह स्वर, अभी भी
वहाँ है!
पर
मुक्तिबोध तुम कहाँ हो?
तुम्हारी तरह
स्थिर परिस्थितियों (व्यवस्थाओं)
को विद्रूप कर, उसकी बखिया
उधेड़ना चाहता हूँ
खुलकर मखौल उड़ाना चाहता हूँ
पर मुझमें तुम सा तेवर कहाँ है!
मुक्तिबोध तुम कहाँ हो?
आखिर में पाठक वर्ग की ओर से सलाम
मुक्तिबोध...!
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डॉ. लोकेश शर्मा
गायत्री कॉलोनी, कमला कॉलेज रोड
राजनांदगाँव, छ.ग.
मो.नं. 9691562738
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