13 नवंबर 2020 मुक्तिबोध जयंती पर आलेख



शीर्षक- आत्ममंथन के कवि मुक्तिबोध


      हिंदी साहित्य में जब प्रयोगवाद का 'ककहरा' सिखाया जा रहा था तब गजानन माधव मुक्तिबोध इस वाद के शीर्ष पर काबिज़ हो गए थे। प्रयोगवाद को लेकर समीक्षकों ने जी भर मोटी- मोटी समीक्षाएँ लिखीं किंतु मुक्तिबोध टस से मस नहीं हुए। वे अपनी ज़गह बरगद के पेड़ की तरह अविचल खड़े रहे। उनका इस तरह खड़े रहना भी समीक्षकों और आलोचकों को नागवार गुज़र रहा था। यह एक बड़ा सच है कि जो लोग मुक्तिबोध को खारिज़ करते हैं वास्तव में वे मुक्तिबोध को समझते ही नहीं या फिर मुक्तिबोध के स्तर तक पहुंचने की उनमें कुव्वत नहीं होती। मुक्तिबोध अपने धरातल के बिल्कुल 'नग्न यथार्थ' को शब्द देते हैं। किसी तरह का संकोच नहीं करते कि उनके इस उद्घाटन से लोग क्या सोचेंगे? एक धुन सवार होता है और वे बखिया उधेड़ते चले जाते हैं। उनके इस कार्य पर आपत्ति करने वाले इनके तीखे तेवर के चलते देर सबेर हाशिये में चले जाते हैं। मुक्तिबोध की जादूगरी तब भी नहीं रुकती हाशिए पर खड़े तमाशबीनों को अपने रचे हुए संसार का ऐसा इंद्रजाल दिखाते हैं कि सब के सब जड़वत हो सिर्फ़ उनकी इस कारीगरी के मूकदर्शक रह जाते हैं।
      देश के स्थापित शिक्षाविद डॉ. गणेश खरे ने अपने एक उद्बोधन में बहुत साफ़ कहा था कि "मुक्तिबोध को जिसने नहीं पढ़ा है वे उन्हें समझ नहीं सकते।" एकदम तटस्थ होकर डॉ.खरे ने पूरी सभा में मुक्तिबोध पर उँगली उठाने वालों को धूल चटा दी थी। सच भी है कि मुक्तिबोध के प्रति हिंदी साहित्य का एक वर्ग सम्मान से भरा हुआ था और आज भी है बावजूद जब इसी वर्ग से उनकी रचनाधर्मिता को लेकर सवाल किए जाएँ तो मुँह ताकते खड़े रहते हैं। मुक्तिबोध का सम्मान यदि करना ही है तो उन्हें समझना होगा और उन्हें समझने के लिए कोई 'शॉर्टकट रास्ता' नहीं है। इसका एक ही रास्ता है वह है उन्हें पूरे मनोयोग से पढ़ने का। जो उन्हें पढ़ेगा वही मुक्तिबोध को समझने का और सम्मान देने का अधिकारी होगा।
      मुक्तिबोध का एक बहुचर्चित काव्य संग्रह है- "चाँद का मुँह टेढ़ा है।" अगर हम सिर्फ़ उनकी इसी एक कविता को देखें तो यह समझते देर नहीं लगेगी कि उन्हें अपने परिवेश के प्रति कितनी चिंता और अनुराग है। भला चाँद के मुँह को किसने देखा है? परंतु मुक्तिबोध सर्जन की पीड़ा से पैदा हुई अपनी आँख के सहारे चाँद को देखते हैं और सीना तानकर कहते हैं कि चाँद का मुँह टेढ़ा है। हक़ीक़त में वे ऐसा कहकर समाज की विद्रूपताओं को शिकार बनाते हैं। उनके तीर अव्यवस्थाओं के देह पर गहरे घुसते हैं और इसी अव्यवस्था के शरीर (इसके पोषक वर्ग) से टप- टप खून रिसता है। अव्यवस्था के पोषक समाज के जासूस अपना काम करना नहीं छोड़ते तब मुक्तिबोध लिखते हैं कि-
गँजे सिर चाँद की संवलाई किरणों के जासूस 
साम-सूम नगर में धीरे-धीरे घूम-घाम
 नगर के कोनों के तिकोनों में छिपे हैं !!
      मुक्तिबोध निर्भीक कवि थे। यह जानते हुए भी कि व्यवस्था (मुक्तिबोध की नजरों में अव्यवस्था) के पोषकतत्व अपनी कारगुज़ारियों को अंजाम देने से बाज़ नहीं आएँगे और ऐसे लोग अपनी काली करतूतों को चाँद की रोशनी में तमाम करेंगे। मुक्तिबोध को लगता है कि इसमें चाँद की भी मिलीभगत है। इसलिए वे इसी कविता में साफ़ लफ़्ज़ों में कहते हैं-
   टेढ़े मुँह चाँद की ऐयारी रोशनी भी खूब है 
मकान-मकान घुस लोहे के गज़ों की जाली 
      के झरोखों को पार कर लिपे हुए कमरे में 
जेल के कपड़े-सी फैली है चाँदनी
      मुक्तिबोध को यह समझते देर नहीं लगती कि घालमेल करने वालों के साथ चाँद भी शरीक है। गहरी वेदना के साथ बस वे लिखते ही चले जाते हैं। अपनी इसी लंबी कविता में वे संस्कृति का मज़ाक बनाने वालों को भी अपनी क़लम से धराशायी करते हैं। 'महामानव बुद्ध' एवं 'ईसा' की चिंता को शिरोधार्य करते हुए वे उनके दर्शन को विद्रूप कर रहे लोगों को भी नहीं बख्शते और लिखते हैं-
   बुद्ध के स्तूप में 
मानव के सपने गड़ गए, गाड़े गए।। 
ईसा के पंख सब 
झड़ गए, झाड़े गए।। 
सत्य की 
देवदासी-चोलियाँ उतारी गईं उघारी गईं 
सपनों की आँते सब 
चीरी गईं, फाड़ी गईं ।।
      मुक्तिबोध ने वही लिखा जिसे उन्होंने देखा। अपने तेवर के साथ अभिव्यक्ति देते हैं मुक्तिबोध। रहस्यों के अंतरजाल में वे पाठक वर्ग को ऊपर से नीचे तक उलझाते हैं परंतु इस उलझन से वही बाहर निकल पाता है जो मुक्तिबोध को पढ़ता है। उन्हें ठीक-ठीक समझता है। हिंदी के वरिष्ठ साहित्यकार श्री शमशेर बहादुर सिंह ने लिखा है- "मुक्तिबोध का वास्तविक मूल्यांकन अगली यानी अब आगे की पीढ़ी निश्चय ही करेगी।" कहते हैं कि अस्त होते सूर्य की परछाई बड़ी होती है। मुक्तिबोध तो नहीं रहे परंतु उनकी कृतियों की परछाई इतनी बड़ी है कि इसी के सहारे उन्हें अनुभव करते हुए उनके वैचारिक शिखर को स्पर्श किया जा सकता है। मुक्तिबोध को पढ़ना ही होगा और जानना होगा कि वह कैसे आधुनिक यथार्थ कथा का भयानकतम अंश पाठक वर्ग को दे पाए? यदि ऐसा नहीं कर पाए तो यकीन जानिए हम 'अंधेरे में' ही रहेंगे।
      

डॉ. लोकेश शर्मा, गायत्री नगर, राजनांदगांव (छत्तीसगढ़) मोबाइल- 96915 62738

   

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ