देखे जावत हे कि आजकाल के बेरा म लोगन कहिथे कुछु अउ करथें कुछु। कथनी अउ करनी म सोझे फरक देखे बर मिलत हे। येकर ले मनखे मन के मनखे मन ले विसवास उठत जावत हे। कोनो ह कोनो ल समझे बर तियाय नी होवत हे। हमन ह बेरा ल दोस देथन, बेरा खराब चलत हे कहिके, फेर येमा बेरा के काय दोस। बेरा तो अपन दायित्व निर्वहन करे म कोनो कमी नी करत हे। हमन ह अपन दायित्व ल कहां तक निभावत हन येहा सोचे के बात आय।इही बात लोक कलाकार मन उपर लागू होथे। लोक कलाकार मन अपन प्रस्तुति के माध्यम ले बने करे के सीखे देेथें। फेर वोमन का वास्तविक जीवन में उही बात ल उतार पावत हें। अइसने साहित्यकार मन लेखनी के माध्यम ले समाज ल रसता देखाथें। कुल मिलाके देखे जाय त साहित्यकार अउ लोक कलाकार मन के भूमिका बड़ महत्वपूर्ण होथे। त हमू मन परन करन कि हमन करनी अउ कथनी म कोनो अंतर झन रहाय। अउ एक ठन स्वच्छ परंपरा के निर्वहन करे म कोनो कमी झन करन। इही म ही हम सब झन के भलई हवय। जेन हमर कला अउ साहित्य म दिखथे वोला व्यवहारिक जीवन म अपनाए ले हमन समाज ल दशा अउ दिशा दे सकत हन...त हमन लगन परन मा...जय जोहार...।
संपादक
गोविन्द साहू(साव)
लोक कला दर्पण
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