पर्व-विशेष
करम डाल की करते हैं पूजा
लोक पर्वों का सीधा संबंध कृषि और पर्यावरण से है। सरगुजा अंचल की जनजातियों का लोक जीवन मूल रुप से कृषि और वन पर आधारित है। कृषक समाज लोक पर्वों के माध्यम से अपने भावों को व्यक्त करता है। करमा पर्व सर्वाधिक चर्चित लोकपर्वों में से एक है। इस पर्व पर किया जाने वाला नृत्य करमा नृत्य कहलाता है। प्रत्येक पर्व के पीछे उसका एक लोक इतिहास जरूर होता है। करमा पर्व मनाने से संबंधित भी अनेक किंवदंतियां प्रचलित हैं। उत्तरी छत्तीसगढ़ के सरगुजा अंचल में मनाए जाने वाला लोक पर्व करमा आज धूमधाम से मनाया जाता है। भादो मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को मनाए जाने वाला लोक पर्व प्रकृति की पूजा पर आधारित होता है।
तैयारियां
सुबह से आदिवासी परिवार इसकी तैयारी में जुट जाते हैं। पूरे दिन महिला पुरुष उपवास रखकर शाम को गांव में किसी एक जगह बैठ कर करमी वृक्ष की डंगाल आंगन में लगाकर पूजा करते हैं। गांव का बैगा करम देवता की कहानी कथा सुनाते हैं। कथा उपरांत महिला पुरुष लोक वाद्य मांदर की थाप और झांझ झंकार में करमा नृत्य करते हैं। सरगुजा में करमा लोकगीत काफी प्रसिद्ध भी हैं। करमा लोकगीत ने तो अब आधुनिक रंग भी ले लिया है।
देर शाम पूजा अर्चना के बाद जब महिला पुरुष मांदर की थाप और झांझ की झंकार में नृत्य करते हैं और आधुनिक गीत हाय रे मोर सरगुजा नाचे.. अलथी कलथी मांदर बाजे...में थिरकते हैं तो आकर्षण देखते ही बनता है। इसी तरह पारंपरिक करमा गीत सावन...भादो...कर झरिया...काबर भीजे रे गोरिया...ओह रे...ये रे...की तान छेड़ते हैं तो पूरा माहौल उत्साह और उमंग में डूब जाता है।
प्रचलित कथा
बताया जाता है कि करमा और धरमा नाम के दो भाई थे। करमा ने कर्म की महत्ता बताई और धरमा ने शुद्ध आचरण तथा धार्मिक जीवन का मार्ग दिखाया। इन्हीं दोनों भाइयों में से करमा को देव स्वरूप मानकर अच्छे प्रतिफल की प्राप्ति हेतु उन्हें प्रसन्न करने के लिए उनकी पूजा-अर्चना तथा नृत्य प्रतिवर्ष किया जाता है। आदिवासी समाज प्रकृति की पूजा करता है इस कारण करमी नाम से जंगल में मिलने वाले वृक्ष की डंगाल करम देवता के प्रतीक स्वरूप आंगन में गाड़ कर उसकी पूजा करता है। सरगुजा की आदिवासी जनजाति एवं कुछ अन्य जनजातीय कृषक वर्ग खेतों में परिश्रम करके करम देवता से अच्छी फसल की अपेक्षा करते हैं। उन्हें प्रसन्न करने के लिए उनकी पूजा-अर्चना व नृत्य करते हैं। करमा शब्द कर्म (परिश्रम) तथा करम (भाग्य) को इंगित करता है। मनुष्य नियमित रूप से अच्छे कर्म करे और भाग्य भी उसका साथ दे। इसी कामना के साथ करम देवता की पूजा की जाती है। यह पर्व भाद्रपद शुक्ल पक्ष की एकादशी को मनाया जाता है। सरगुजा अंचल में इस दिन बहनें अपने भाइयों की दीघार्यु के लिए दिन भर व्रत रखती हैं और रात को करम देवता की पूजा के उपरांत प्रसाद ग्रहण कर व्रत तोड़ती हैं। करमा पर्व में करमी नामक वृक्ष की एक डाली को पारंपरिक रूप से प्रमुख व्यक्ति के आंगन में स्थापित किया जाता है। उस डाली को ही करम देवता का प्रतीक माना जाता है और उसकी पूजा की जाती है।
पूजा अर्चना
करमा त्यौहार के सप्ताह भर पहले तीजा पर्व के दिन टोकरी में जौ, गेंहू, मक्का बोती हैं जो करमा पर्व तक बढ़ गया होता है। स्थानीय बोली में उसे जाईं कहा जाता है। उसी जाईं में मिट्टी का दीया जलाते हैं, उसे फूलों से सजाते हैं और उसमें एक खीरा रखकर करम देवता के चरणों में चढ़ाते हैं। इसके बाद हाथ में अक्षत (चावल) लेकर स्थानीय भाषा में करम देवता की कथा सुनते हैं। करमा नृत्य एवं गीत करम देवता की पूजा-अर्चना और प्रसाद ग्रहण के बाद रात भर करम देवता के चारों ओर घूम-घूम कर करमा नृत्य किया जाता है। महिलाएं गोल घेरे में श्रृंखला बनाकर नृत्य करती हैं और उनके मध्य में पुरूष गायक, वादक एवं नर्तक होते हैं।
विसर्जन
सरगुजा अंचल में कई प्रकार के करमा नृत्य किए जाते हैं। इसमें रास करमा (भाद्रपद एकादशी) के अलावा आठे पर्व (श्री कृष्ण जन्माष्टमी), तीजा पर्व (हरितालिका तीज), जींवतिया पर्व (पुत्रजीवित्का), दशईं पर्व (दशहरा) और देवठन पर्व (कार्तिक एकादशी) में भी किया जाता है। वाद्ययंत्रों के रूप में मांदर, झांझ, मोहरी (शहनाई) आदि का प्रयोग किया जाता है। करमा पर्व में रात भर गीत-नृत्य के माध्यम से करम देवता की सेवा करने के पश्चात सूर्योदय के पूर्व उनका विसर्जन कर देते हैं।
लेखिका
श्रीमती सीमा साहू, दुर्ग
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