मेरी बचपन की सखी मुन्नी ,वह दिव्यांग थी ,मारवाड़ी परिवार में उसका जन्म हुआ था, बहुत सुंदर गोरी सी , आंँखें बहुत सुंदर ,शरीर अष्टवक्र की तरह मुंडा़ हुआ,पाव में सुंदर तील के निशान,मुँह से हमेशा लार बहते रहती थी, वह कभी चल नहीं पाती थी,न बोल पाती थी,सब वैभव होने के बाद भी, मुन्नी के मां - पापा जी बहुत दुखी रहते थे, मम्मी भी कुबडी़ थी,बचपन में जैसे तैसे बेटी को संँभाल लेती थी, सभी जगह उसका इलाज किया गया , किसी वैघराज ने ---- मुन्नी के माता-पिता को कह दिया की छै महिने यदि इसके शरीर के आधा भाग को जमीन में रखा जायें तो,यह बच्ची ठीक हों जायेंगी !
उनके माता-पिता पिता ने यह प्रयास किया फिर भी वह ठीक नहीं हो पायी। जैसे जैसे मुन्नी बड़ी होती गई, मां-पापा को और भी संकट का सामना करना पड़ता था, मांँ भी कमजोर थी, क्या करे ,मुन्नी अब १८साल की हो गई थी,
मुन्नी भी बहुत दुखी रहने लगी थी, मै बचपन से उसकी भाव को देखकर समझ जाती थी, मुझे देख कर वह हँसती खिलखिलाती थी, मैं उसकी एक मात्र सहेली थी ,जब भी वह दुखी रहती , रोती मुझे ३किलो मीटर गांँव मुड़माडी से स्वयं अंकल मुझे लेने आते थे, वैसे अंकल मुन्नी को संँभाल लेते थे,
वक्त के साथ , मैं भी बड़ी हो गई थी , मेरे लिए भी रिश्ता आने लगा , और दुर्ग में मेरी शादी ८मई १९९८को तय हो गई, मेरी शादी का कार्ड छप गया था , मैं बहुत खुश थी मेरे विवाह का कार्ड , सबसे पहले मैं अपनी प्यारी सखी मुन्नी के हाथ में दी ,
मेरे कार्ड को छूते ही,वह जोर जोर से रोने लगी! जैसे कह रही हो -सखी "तुम चली जाओगी ,तो मेरी भावना , मेरे सुख -दुख को कौन समझेगा"? तुम ही तो मेरी जीवन की किताब पढ़ने वाली! सीमा हो.....
मत जाओ! मेरी सखी ---- मेरे भी आंँख के आंँसू थम नहीं रहें थे , लगता था हम एक-दूजे के लिए बने थे, मुझे उस समय लग रहा था, की जिस तरह से शरीर को जीव रूपी माया संसार को छोड़कर जाने में जितनी तड़प होती है----- मैंने उस दिन महसूस किया था ,
मैंने देखा था ----+दीवार के कोने में मुन्नी के मम्मी-पापा को रोते हुए
मैं समझ नहीं पा रही थी,क्या करूँ , मैं अपने आंँसू पोंछते हुए ----मुन्नी से कही थी अरे पगली , मैं तुम्हारे साथ हूं,जब भी तुम याद करोगी , मैं तुम्हारे पास आ जाऊंँगी बस, रोना नहीं मुझे खुशी खुशी बिदा करना सखी
वह अपने हाथों को मेरे हाथ में रखा ,ऐसा लगा जैसे कह रही हो ,वादा करों तुम मुझे कभी नहीं छोड़ोगी ?
मैंने अपनी सखी मुन्नी से वादा लिया , अंकल आंटी से विदा ली और विवाह के बाद अपने ससुराल आ गई।
सारी खुशियां मुझे मिली, लेकिन मेरा मन अपनी मुनिया को पुकारता, लगता था मायका पास रहता तो दौड़ कर चली जाती ...........
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कुछ दिन बाद तीजा पोला का त्योहार, बहुत खुशी और इंतजार की घड़ी थी ----.
अपनी मुन्नी से ढेर सारी खुशियां बांटने की , बहुत तड़प थी, मुझे मालूम है सखी मेरे बिना तुम्हारा दिन कैसे कटता होगा?
कभी कभी अंकल-आण्टी के ऊपर बहुत गुस्सा आता था मुझे,फोन तो करते जिससे ...मेरी सखी की आवाज सुन पाती मैं..
बहुत दिनों के बाद अंकल का फोन आया , मैं बहुत खुश थी -अंकल मेरी मुन्नी कैसी है?
अंकल के आवाज में एक कंपन सा था -बोल नहीं पा रहे थे----
बोलिए ना अंकल मेरी मुन्नी कैसी है......
उन्हें फोन दो ना-----------प्लीज ----
अंकल" मेरी कसम दो न-"-----प्लीज
अंकल ने बहुत मुश्किल से -मुझसे कहा ---सीमा बेटा !
क्या हुआ? मुझे कुछ समझ आ रहा था ,आभास भी हो रहा था , कुछ तों बात है -----
बताइए न अंकल-----
अंकल- तुम संकट को सह पाओगी?
तुम्हारी सखी मुन्नी इस दुनिया में नहीं रही




क्या? सुनकर-- मुझे लगा मेरी जान निकल गई हो! मैं कुछ नहीं बोल पायी
वह दिन मेरे लिए कितना दुखद था.... संकट का था......मैं कह नहीं सकती ...........✍️सीमा अष्टमी साहू सुभाष नगर दुर्ग छत्तीसगढ़




नमन.
लेखक - सीमा साहू.
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