प्रकृति बिना भेदभाव के करती हैं पोषण,
कितना भी हम प्रकृति का करते हैं शोषण।
जिसका दिखे परिणाम, प्रकृति हो रही कुद्ध,
बाढ़, भूकंप, आँधी तूफ़ान असमय वर्षण ।।
हरे भरे वृक्ष काट बना रहे कंक्रीट के जंगल,
निज स्वार्थ सिद्धि कर हम मना रहे हैं मंगल।
राष्ट्र और समाज के हित का ध्यान न रखते,
स्वार्थ सिद्ध में लगे, जैसे जीत रहे हो दंगल।।
अभी नहीं कुछ बिगड़ा है, संभल हम जाएँ,
जहाँ कटे हो पेड़, वहाँ पर ख़ूब वृक्ष लगाएँ।
हरियाली होगी चहुँओर शुद्ध हवा हम पाएँगे,
न होगी नित हमें बीमारी, न दवा को खाएँगे।।
वर्तमान कहता, प्रकृति की ओर लौटना बेहतर,
आधुनिकता के चलते न होना चाहे हम कमतर।
प्रदूषण से महामारियों का नित हो रहा आगमन,
ग्लोबल वार्मिग कम करने की जिम्मेदारी हम पर।।
अभी न हम चेते तो होंगे विनाशकारी परिणाम,
प्रकृति बदलती जा रही है नित अपने आयाम।
कुदरत ढहाती है कहर, न किसी का बस चलता,
चाहे जो कोशिश करलें, कोई नुस्खा न आए काम।।
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लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव
बस्ती [उत्तर प्रदेश]
मोबाइल 7355309428
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