रमैया राम के पास किसी ने फोन किया कि तुम्हारे मित्र मनसुख इस नश्वर संसार को छोड़कर चले गये। आप जल्दी आ जाइए।
रमैया राम एवं मनसुख दोनों लंगोटिया यार थे। बचपन में साथ- साथ, खेलते ,लड़ते- झगड़ते एवं पढ़ते- लिखते थे। एक दूसरे से दांतकटी दोस्ती थी। रमैया राम साधु स्वभाव का इंसान था। साधु- संतों की संगति, सत्संग, स्वाध्याय, ध्यान एवं मनन- चिंतन करता रहा। उनकी रुचि अध्यात्म में थी। मनसुख यथा नाम तथा गुण वाला व्यक्ति था।वह मन के वशीभूत होकर मन के भोगों में ही सुख मानता था। रमैया राम मनसुख को बारंबार समझाता रहा कि भाई! थोड़े दिन की जिंदगी है। कुछ धरम-करम की कमाई कर ले परंतु मनसुख कहता था- अभी तो मेरी सारी उम्र पड़ी है, अभी से क्या भक्ति-वक्ति करना। बुढ़ापा में धरम-करम की कमाई कर लेंगे। अभी तो घर बनाना है।लड़की-लड़के के हाथ पीले करने हैं। दुकान खोलना है, जमीन खरीदना है। इतना ही नहीं एम. एल. ए. के पद में भी सुशोभित होकर राजनीति करनी है। बुढ़ापा में भक्ति कर लेंगे।
रमैया राम मनसुख के घर पहुंचा तो देखा मनसुख का पार्थिव शरीर आंगन में पड़ा है। उनके ऊपर पीताम्बरी कफन ओढ़ाया गया था। फूल, गुलाल चढ़ाए गए थे और सेंट छींटे गये थे ।परंतु उनके मन नहीं है- मनसुख के संजोए गए सुख नहीं है। सारे सपने मिट्टी की दीवार की तरह ढह गए हैं। रमैया राम को सदगुरु कबीर साहेब का एक पद याद आ गया। उन्होंने उनके शरीर को पकड़कर झकझोरते हुए कहा- "अब कहां चलेउ अकेले मीता, उठहु न करहु घरहु की चिंता।"
हे मित्र! चिर कालीन निद्रा में कैसे सोए हुए हो ? आपको तो अभी बहुत सारा काम करना है न...! आंख खोलकर देखो न तुम्हारी पत्नी तुम्हारे पैर पकड़कर रो रही है।उनकी सुहाग की चिंता क्यों नहीं करते? साथ रहने की कसमें खाई थी न...! तुम्हारे पेट पकड़कर माताजी रो रही है, उनके आंसू क्यों नहीं पोछते? बांह पकड़ कर तुम्हारे भाई रो रहा है, उसे शांत क्यों नहीं कराते? तुम्हारी लड़की रो- रो कर पूछ रही है, पिताजी ! मेरी सगाई किये बिना ही कैसे चले गये? तुम्हारे लड़के तुम्हें कह रहा है, बाबूजी! आपने तो मेरे लिए जमीन खरीदने एवं दुकान डालने की बातें कर रहे थे।आज अचानक कैसे बीच में ही मुझे छोड़ कर चले गये? हे मित्र ! संसार के जिन प्राणी एवं पदार्थों को अपना मानकर उसमें रचते -पचते रहे। शहद में मक्खी की तरह सुख मानकर लिपटे रहे ।अब आपकी याददाश्त कहां गई? आप तो यही समझते थे न...! परिवार एवं सगे संबंधी सब मेरे हैं । मेरे बिना ये लोग कैसे रहेंगे? घर, दुकान, जमीन- जायदाद मेरे ना रहने पर बर्बाद कर देंगे अर्थात बेच खाएंगे घर, परिवार की तलैया के बीच डूबे रहे। आज अब पूरी जिम्मेदारी निभाए बिना कैसे चले गये?"
रमैया राम की बातें सुनकर मानो मनसुख की अंतरात्मा कहती है- आप सच कहते हैं मित्र! मेरे न रहने से भी घर, परिवार एवं सगे- संबंधी अच्छे से रहेंगे। यह दुनिया भी अबाध गति से चलती रहेगी। मैं ही मोह की मदिरा पीकर इन सबमें दीवाना बना फिरता रहा। मैं अपने अमूल्य जीवन को न समझ सका। कभी सत्संग, भजन, भक्ति, स्वाध्याय एवं ध्यान चिंतन कर अविनाशी तत्व को नहीं समझ पाया बल्कि नश्वर भौतिक सुख सुविधाओं को ही सब कुछ मानकर जोड़ता रहा। जीवन रहते अध्यात्म को दरकिनार कर दिया। हे मित्र! मेरा सपना तो बालू की भीत की तरह भरभरा कर गिर पड़ा। मैं सांसारिक प्राणी एवं पदार्थों को अपना मानकर छाती पेटे लगाया रहा। आज सब शून्य हो गया ।आज,कल एवं वर्षों के लिए ही नहीं...!! अनंत काल तक मेरा माना हुआ दुनिया काल के गाल में समा गई।
लेखक
*दिनेंद्र दास*
कबीर आश्रम करहीभदर
अध्यक्ष मधुर साहित्य परिषद् तहसील इकाई बालोद
जिला- बालोद (छत्तीसगढ़)
8564886665
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